हासिए पर पूर्वांचल के मुसहर

 


विजय विनीत


कुछ गज जमीन, जर्जर मकान, सुतही- घोंघा और चूहा पकड़कर जीवन की नैया खेते-खेते थक हार चुका है मुसहर समुदाय। और वह आज भी हासिए पर खड़ा है। सत्ता के कई रंग लखनऊ की सियासत पर चढ़े। कभी पंजे का जलवा, कभी कमल खिला। कभी हाथी सरपट दौड़ा तो कभी साइकिल पर सवार समाजवादी सरकार रही। कोई भी रंग इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थित में बदलाव नहीं ला सका।


तंगी ने इनके साथ आंखमचौली तो खेली ही किसी भी सरकार ने उनके और उनके समुदाय के लिए कुछ भी नहीं किया। बस आते हैं चुनाव के दौरान कहते हैं कि स्थितियां बदलेंगी। मगर आज तक हालात नहीं बदले। स्थितियां सुधरने के बजाए बिगड़ी ही है। यह कहानी मुसहर समुदाय के एक आदमी की नहीं, बल्कि यूपी के पूर्वांचल के समूचे मुसहर समुदाय की है। पूर्वी यूपी के वाराणसी, सोनभद्र, मिर्जापुर, जौनपुर और कुशीनगर में इनकी आबादी लाखों में है।


मुसहरों को पशुओं से भी बदतर जीवन जीना पड़ता है। वजह, जिस झोपड़ी में इनका पूरा परिवार तो रहता है, उसी में उनकी भेड़-बकरियां भी पलती हैं और भोजन भी बनता है। इनका जीवन बेहद निम्न स्तर का है। पशुओं से भी बदतर हालत है। बारिश के दिनों में इनके घर चूते हैं। इनके पास घर बनाने के लिए पैसे ही नहीं हैं।


समूचे पूर्वांचल में मुसहरों को अनुसूचित जाति (एससी) के रूप में मान्यता प्राप्त है। वे अलग-अलग बस्तियों में गांवों के हाशिये पर जीवित रहते हैं। उनका पारंपरिक पेशा था चूहों को खेतों में दफनाना। बदले में उन्हें मिलता था चूहे के छेद से बरामद अनाज और उस अनाज को चाक को रखने की अनुमति। सूखे की मार के समय  मुसहरों की आजीविका चूहों पर ही निर्भर रहती थी। बनारस के ज्यादातर मुसहर परिवार ईंट भट्टों पर बंधुआ मजदूर के रूप में काम करते हैं।


पूर्वांचल में मुसहरों के हालात दिन प्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं। इनका शोषण आजादी के पहले भी होता रहा और आज भी हो रहा है। इस समुदाय के लोग सामाजिक और आर्थिक धरातल से कटे हुए हैं। इन्हें खेती और आवास के लिए जमीन देना सरकार का बड़ा कमिटमेंट था। सीलिंग की जिस जमीन के पट्टे दिए गए, उस पर कब्जे नहीं दिए। जमीन के लिए आज भी संघर्ष चल रहा है। इसे लेकर मुसहर समुदाय पर अत्याचार चल रहा है।


सरकारी फरमान जारी होते हैं कि मुसहरों को जमीन दी जाए। जमीन का आवंटन भी होता है, लेकिन दबंगों की दबंगई उन पर हावी हो जाती है। उनके घरों को जला दिया जाता है। जमीन पर फिर काबिज हो जाते हैं दबंग। बाद में कोर्ट इस जमीन पर स्टे आर्डर लगा देती है। फिर समाज के दबे-कुचले लोग तारीख पर तारीख अदालतों के चक्कर लगाते है। बाद में इस कदर टूट जाते है कि जमीन पाने का सपना चकनाचूर हो जाता है। गरीबी के चलते वे मुकदमे नहीं लड़ पाते।


दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए मुसहर समुदाय के लोग हर वक्त जूझते हैं। फिर भी रोटी सिर्फ किस्मत वालों को ही मिल पाती है। धरती पर बसे इंसान इन्हें हर रोज शोषण का शिकार बनाते हैं। ये मजबूरी में शोषित हो रहे हैं।


हालात देखकर यकीन नहीं होगा कि आजाद भारत के किसी गांव में आए हुए हैं। यहां के लोगों ने जो बातें बताईं उससे आपकी रूह कांप उठेगी।


मुसहरों का जीवन खुशहाल बनाने के लिए काम कर रहे समाजसेवी डा. लेनिन रघुवंशी यह जानने की कोशिश की गई कि असल में इनकी समस्या के मूल में क्या है? जवाब मिला। इनकी स्थिति अब पहले जैसी नहीं। ये थोड़े जागरूक जरूर हुए हैं, लेकिन शोषण तो अब भी हो रहा है। हालांकि शोषण पहले की अपेक्षा कम है।


समाजसेवी श्रुति नागवंशी कहती हैं कि अमीर आदमी का बच्चा न खाने पर मार खाता है और मुसहरों के बच्चे खाना मांगने पर मार खाते हैं। हमें इसकी समस्या का निराकरण करना ही होगा।


बनारस में मुसहरों की एक बड़ी आबादी के पास सिर छिपाने के लिए जगह तक नहीं है। इनकी जमीनों की सुरक्षा के लिए सरकार ने कठोर कानून बना रखा है, मगर उनकी जमीन घटती जा रही है। अगर यह सुधार समय रहते नहीं किया गया तो समाज में ये खाई बढ़ती ही जाएगी। इसके बाद का जो सीन जो बनेगा उसे सोचकर कोई सिहर जाएगा। व्यवस्था के प्रति मुसहरों में असंतोष बढ़ता ही जा रहा है।