महाकवि जयशंकर प्रसाद को पचास साल बाद मिला न्याय

सिकमी किरायेदार किसी भी संपत्ति का मालिक अथवा रेंटर नहीं हो सकता


अवैध कब्जाधारी माने जाएंगे ऐसे लोग, हर हाल में छोड़ना होगा कब्जा



विजय विनीत


वाराणसी। महाकवि जयशंकर प्रसाद की संपत्ति हथियाने की कुत्सित कोशिशें एक बार फिर नाकाम हो गईं। वही जयशंकर प्रसाद जो हिन्दी के कवि, नाटककार, उपन्यासकार और निबंधकार थे। प्रसाद ने कामायनी और चर्चित कहानी गुंडा लिखी तो  साहित्य जगत में छा गए। वाराणसी के विशेष न्यायाधीश भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (तृतीय) पुष्कर उपाध्याय ने जयशंकर प्रसाद की संपत्ति हड़पने की नीयत से मुकदमा दाखिल करने वालों के अरमानों को धो डाला। न्यायाधीश ने विस्तार से फैसला सुनाते हुए अतिरिक्त सिविल जज (जूनियर डिविजन) पंचम के फैसले को सही ठहराया और यह भी अभिनिर्धारित किया कि सिकमी किरायेदार, किसी भी संपत्ति का न मालिक हो सकता है और न ही किरायेदार। वो सिर्फ अवैध कब्जाधारी हो सकता है। जिस तरह से काशी के कालजयी रचनाकार की जिंदगी पेंचीदगियों से भरी रही, वैसे ही 50 साल से ज्यादा पुराना यह मामला भी उनके जीवन जैसा ही रहा। सत्ता किसी की रही हो, महाकवि की प्रतिभा को न सरकार और न ही सियासी दलों ने सही मुकाम नहीं दिया।


देश के जाने माने साहित्यकार जयशंकर प्रसाद के पुत्र रतन शंकर ने साल 1966  में एक वाद बकुल सरदार और अन्य के विरुद्ध प्रस्तुत किया था। इस वाद में निर्णय और डिग्री 05 अगस्त 2011 हुई थी। इस फैसले के विरुद्ध लालमनी देवी बनाम आनंद शंकर प्रस्तुत किया गया, जिसमें जयशंकर प्रसाद के पुत्र रतन शंकर ने खानदानकर्ता की हैसियत से बंधु सरदार नामक व्यक्ति को दो रुपये प्रतिमाह किराये पर अपने स्वामित्व का एक जुज भाग जो खंडहर था, तय शर्तों पर दे दिया। यह संपत्ति मौजूदा समय में मकान नंबर-डी 38/142 हौज कटोरा-वाराणसी में है। तय हुआ था कि बंधु सरदार अगर खंडहर में किरायेदारी के भाग को छोड़ेंगे तो तीन महीने की नोटिस देकर खंडहर को खाली करना होगा। हर हाल में कब्जा खंडहर मालिक का रहेगा। खंडहर मालिक अपनी किरायेदारी से अगर बेदखल करना चाहेगा तो वो भी तीन माह की नोटिस देगा। बाद में बंधु सरदार ने खुद उक्त ऐतिहासिक खंडहर को लेकर सरखत किरायेदारी 05 अक्टूबर 1923 को जयशंकर प्रसाद के पक्ष में लिख दिया।


उल्लेखनीय है कि बंधु सरदार के खानदान के बकुल सरदार ने साल 1954 में खंडहर में खुद को किरायेदार साबित करने की कोशिश की, लेकिन वो कामयाब नहीं हुए। पुरानी किरायेदारी कायम रही। यह निर्णय बाद संख्या-606-1954 रतन शंकर बनाम बकुल सरदार में निश्चय हुआ। न्यायालय ने कहा कि किरायेदारी की बाध्यता बंधु सरदार व पक्षकार पर है। जब तक किरायेदार खत्म न जाए, तब तक वो अस्तित्व में रहेगा।


इसी मामले में सिविल जज पंचम ने वाद संख्या-772-1966 रतन शंकर बनाम बकुल सरदार में पांच अगस्त 2011 को रतन के पक्ष में फैसला सुनाया। इस फैसले से क्षुब्ध होकर अपीलकर्ता ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में अपील पेश की, जिसे विशेष न्यायाधीश भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (तृतीय) पुष्कर उपाध्याय ने निरस्त कर दिया। कोर्ट ने यह भी निर्धारित किया कि बंधु सरदार की साल 1964 में मौत हुई। उसके बाद से ही विवादित संपत्ति पर न्यायालय के मध्य बकुल सरदार का कब्जा माना जा सकता है। साथ ही यह भी निर्धारित किया कि जयशंकर प्रसाद के पौत्र आनंद शंकर उक्त संपत्ति के असली स्वामी हैं। इनके विरुद्ध किरायेदारी की वैधता समाप्त कर दी गई है। इस मामले में बंधु सरदर के पक्षकार किरायेदारी साबित करने में असफल साबित हुए। कोर्ट ने यह भी कहा कि साल 1923 में जो किरायेदारी लिखी गई, उसके अनुसार किरायेदारी समाप्त होने पर जो निर्माण प्रतिवादी अपने खर्चे से किया होगा, उसे किरायेदारी समाप्त होने पर मालिक को अपने खर्च से देना होगा। पांच दशक पुराने विवाद में कोर्ट ने 20 फरवरी 2020 को अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि सिकमी किरायेदार किसी संपत्ति का मालिक नहीं हो सकता है। उसे हर हाल में संपत्ति से कब्जा छोड़ना होगा और उसे अवैध कब्जाधारी माना जाएगा।


प्रसाद का पांडुलिपियों पर भी है बड़ा विवाद


वाराणसी। महाकवि जयशंकर प्रसाद की तमाम पांडुलिपियों को भी लेकर विवाद है। इस विवाद में जयशंकर प्रसाद के छह पौत्रों का परिवार अलग-अलग खेमों में बंट गया है। जयशंकर प्रसाद की कृतियों पर मिलने वाली रायल्टी पर परिवार के सभी सदस्यों का हिस्सा है, लेकिन इस पर कुछ लोगों ने एकाधिकार कर रखा है। जयशंकर प्रसाद के पौत्र किरण शंकर प्रसाद सवाल उठाते रहे हैं कि प्रसाद जी की कृतियों-कामायनी, आंसू, भस्मपात्र, तितली, माला और इरावती आदि की पांडुलिपियों को किस अधिकार से दिल्ली भेज दिया गया है, जबकि प्रसाद न्यास की नियमावली में स्पष्ट लिखा है कि प्रसाद जी की कोई पांडुलिपि अथवा उनकी कोई भी निशानी न्यास परिसर से बाहर नहीं जाएगी। वहीं दूसरे पक्ष के आनंद शंकर प्रसाद का कहना है कि प्रसाद जी की किसी भी पांडुलिपि को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया गया है। प्रसाद जी से जुड़ी सामग्रियां जिस आलमारी में रखी हैं, उस आलमारी के ताले को परिवार के सभी सदस्यों की मौजूदगी में एम-सील लगाकर लॉक किया गया है। एक पक्ष का यह भी कहना है कि प्रसाद न्यास के नियमों में ही यह लिखा है कि यदि पांडुलियों एवं अन्य वस्तुओं के छिन्न-भिन्न होने की स्थिति आती है तो इन्हें राष्ट्रीय अभिलेखागार, भारत कला भावन अथवा नागरी प्रचारिणी सभा को सौंप दिया जाए ताकि इनका सही तरीके से देखरेख हो सके।