कोरोना संकट के बाद बनारस में बहुत कुछ बदला है। गंगा अगर साफ हुईं हैं तो घाटों की रौनक भी गायब हुई है। काशी का पोल्यूशन सुधरा है तो इस शहर की मौजमस्ती और लोगों की हस्ती भी मिटी है। कोरोना संकट के बाद उन लोगों का क्या बदला है, जो बनारस की पहचान के अहम किरदार हैं? जानिए विजय विनीत (vijay vineet) केे साथ दिलशाद अहमद की इस रिपोर्ट में। बुनकर: अमीनुद्दीन अंसारी, 60 साल (बनारस अपनी रेशमी साड़ियों के लिए मशहूर है और यहां के रेशम उद्योग की चर्चा 12वीं-14वीं सदी से बताई जाती है। काशी के बुनकर अपने काम में बड़े हुनरमंद माने जाते हैं।) मैं भदऊ के घसियारी टोला में रहता हूं। बीते चालीस साल से कपड़े की बुनाई का काम कर रहा हूं। ये हमारा पुश्तैनी काम है। कोरोना संकट के बाद हुए लाक डाउन में मेरी जिÞंदगी और पीछे चली गई। दो लूम चल रहे थे, लेकिन सब बंद पड़े हैं। हमारे कुल नौ बच्चे हैं। पांच बेटे और चार बेटियां। इनमें तीन शादीशुदा हैं। सभी बच्चों को काम नहीं सिखाया, क्योंकि उनका भविष्य बर्बाद हो जाता। कुछ बच्चे मेरे साथ बुनाई करते हैं और कुछ दूसरे काम करते हैं। लाक डाउन में ऐसा वार किया है कि जिंदगी पहाड़ सरीखी हो गई है। पहले हम अपना माल खुद बाजार में बेचते थे, लेकिन अब मजदूर की तरह काम करते हैं। धंधे में जब से बिचौलिए आए, उनका माल सस्ता पड़ने लगा और हमारा बाजार खत्म हो गया। पहले रोजाना 200 से 250 रुपये कमा लेते थे। पांच साल पहले यही कमाई 300 से 350 रुपये थी। महंगाई बढ़ी और आमदनी घट गई। कोरोना का असर ये हुआ कि अब हम कर्ज लेकर खा रहे हैं। अब तो बात इज्जत की है। परेशान ज्यादा हैं। दिक्कत सिर्फ पेट भरने की ही नहीं, दूसरी भी है। वो इलाके की बक्सर शहीद मस्जिद के इमाम भी हैं। नमाज पढ़ाने जाते हैं तो डर लगता है। साथ में तीन-चार लोग होते हैं। बनारस पुलिस पूछताछ बाद में करती है, मारती पहले है। खाने-पीने की दिक्कत ज्यादा है। सरकार मदद नहीं कर रही। कहीं से कोई जुगाड़ नहीं। बिजली का बिल अभी नहीं लिया जा रहा है, लेकिन बाद में सब जोड़कर वसूला जाएगा। कहां से लगाएंगे इतने रुपये, जब काम पूरी तरह ठप है? कुछ दिक्कतें ऐसी हैं जिसे बयां नहीं किया जा सकता। धार्मिक व्यक्ति हूं। झाड़-फूंक से लोगों को चंगा भी करता हूं। रमजान सिर पर है। बहुत दिक्कत होगी। सहरी का इंतजाम कैसे होगा? हमें लगता है कि सरकार जानबूझकर मुसलमानों का टॉर्चर कर रही है। पुलिस वाले भी हमारे घरों की औरतों के लिए गंदी जुबान बोल रहे हैं। फब्तियां कसीं जा रहीं हैं। शर्मनाक बात यह है कि हमें अब कोरोना कहकर बुलाया जा रहा है। पहले सोचा भी नहीं था कि इतने खराब दिन आएंगे। हमें अब मुश्किल के दौर से गुजरना पड़ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हम लोगों के लिए जो पैकेज का ऐलान किया, वो हमारे लिए ठीक था। लेकिन वह आज तक हमारे पास क्यों नहीं पहुंचा? ये बात पीएम को भी पता करनी चाहिए। कर्मचारियों की तनख़्वाह सरकार महंगाई के हिसाब से बढ़ाती है, लेकिन हम और पीछे धकेल दिए गए हैं। आखिर हम कितनी कटौती करेंगे अपनी जिंदगी में? हथकरघे का काम छोड़कर लूम का शुरू किया। मगर इस काम की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। जीवन के साठ बरस गुजर गए हैं। ज्यादा समय तो बचा नहीं है। हमने अपनी जिदगी में बनाया क्या? एक मंसूबा था कि बच्चों को अच्छी तालीम देंगे, वो भी पूरा नहीं हो पाया। नाविक: दुर्गा मांझी, 43 साल (वाराणसी की पहचान घाटों और नावों से भी है। यहां के घाटों पर मांझी परिवारों के बीच नावों का संचालन बंटा हुआ है। दुनिया भर के सैलानियों को नौकायन कराने वाले मांझी भी वाराणसी के अहम किरदार हैं।) हम महज 12 साल की उम्र से काशी के राजघाट पर नाव चला रहे हैं। साल 2014 से पहले हमारे पास एक नाव थी, अब दो बड़ी नावें हो गर्इं हैं। मोदी के पीएम बनने के बाद हमारे जीवन में थोड़ा बदलाव आया, लेकिन कोरोना ने पलीता लगा दिया। निसंदेह घाटों पर सफाई बेहतर हुई है, इसलिए लोग बनारस में ज्यादा आने लगे थे। रोजाना पांच-सात सौ रुपये की कमाई हो जाती थी। घर का खर्च आराम से चल जाता था। दो पैसे बचा भी लेते थे। बच्चों की पढ़ाई भी चल रही थी। हमें लगता था कि शायद अब भविष्य में कभी दिक्कत नहीं होगी। पहले हम कांग्रेस के साथ थे, लेकिन अब मोदी को वोट देते आ रहे हैं। लाक डाउन हुआ तो उसने हमें तोड़कर रख दिया। पहले रोज कमाते थे तो काम चल जाता था। अब काम नहीं है। बुद्धि फेल हो गई है। जिंदगी की गाड़ी अब नहीं चल पाएगी। कोरोना आए या न आए, पर इससे पहले ही हम भूख से मर जाएंगे। आखिर कहां से लाएंगे बच्चों के लिए दूध और भोजन? बातें बहुत हो रही हैं, पर लाक डाउन में कोई पूछ नहीं रहा है। रास्ते में पुलिस के डंडे जरूर खाने पड़ रहे हैं। हमारा दर्द कोई सुनने के लिए तैयार ही नहीं है। राजघाट पुल से आए दिन कोई न कोई सुसाइड करने के लिए गंगा में कूदता है। तब हम अपनी जान की फिक्र नहीं करते और बचाने के लिए गंगा में कूद जाते हैं। काम सेना का करते हैं, नाम एनडीआरएफ का होता है। हमें गोताखोरी का ओहदा तक नहीं मिला आजतक। हमारा कुनबा गोताखोरी तभी से कर रहा है, जब से राजघाट पुल बना है। पहले हमारे पूर्वज गोताखोर थे और इन दिनों हम हैं। हर महीने दो-चार लोगों को बचा लेते हैं। लेकिन हमारे काम का कोई मोल नहीं है। हम तिल-तिलकर मर रहे हैं, कोई पूछने तक नहीं आ रहा है। पुरोहित (पंडा): उदयानंद तिवारी, 68 साल (हिंदू धर्म की मान्यताओं के मुताबिक, काशी भगवान शिव की नगरी है। तीर्थयात्री यहां घाटों के किनारे तमाम तरह के धार्मिक अनुष्ठान कराते हैं। ये अनुष्ठान यहां घाट किनारे बैठने वाले पुरोहित-पंडे कराते हैं।) मैं तीर्थ पुरोहित हूं और भैसासुर घाट पर बीते चालीस सालों से बैठता हूं। इसके पहले मेरे पिता-दादा भी यही काम करते थे। हम तब से कर्मकांड कर रहे हैं जब से लोग हमें दस-बीस देते थे। धीरे-धीरे आमदनी बढ़ी। पर्यटन भी बढ़ा। घाट का कारोबार बेहतर हुआ। लाक डाउन हुआ तो बुरे दिन आ गए। अब भूखों मरने की नौबत है। मेरे परिवार में दो बेटे, चार पोता-पोतियों का भरा परिवार है। पुश्तैनी घर भी है। हम ये जरूर सोचते थे कि मोदी हमेशा पीएम बने रहें। वो आए तो बनारस के घाटों पर साफ-सफाई चौकस हो गई। हम जानते हैं कि काशी से बांधकर कुछ नहीं ले जाएंगे। मगर लाक डाउन ने हमें इस कदर तोड़ दिया है कि जीने का अर्थ ही खत्म हो गया है। दरअसल, घाट की जजमानी पर अब कोरोना की बुरी नजर लग गई है। पिंडदान, अस्थिकलश, कथा पूजन सब बंद है। पहले चार-पांच सौ रुपये आसानी से मिल जाते थे। जीवन बेहतर था। पानी, बिजली, आवास टैक्स से लेकर साग-सब्जी, मेहमानों की खातिरदारी के अलावा रोजमर्रा का घर खर्च, सब आराम से निपट जाता था। अब जीवन बदरंग हो गया है। मुश्किलें बढ़ गई हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि कितने दिन खाएंगे जमा-पूंजी? अब तो वो भी खत्म हो गई है? कर्ज नहीं लिया है, पर उसकी नौबत आ चुकी है। रिक्शा वाला: कैलाशनाथ, 54 साल (रिक्शे वाले बनारस की विरासत हैं। व्यस्त ट्रैफिक के बीच यहां लंबे समय से इनकी खासी मौजूदगी रही है। काशी में घाटों के किनारे तक रिक्शे वालों का एक जमघट दिख जाता है।) मैं बनारस शहर में विगत तीस सालों से रिक्शा चला रहा हूं। मोदी पीएम बने, पर हमारा नसीब नहीं बदला, बल्कि परेशानियां जरूर बढ़ गईं। कोरोना ने इतनी बड़ी मुसीबत खड़ी की है, जिसकी कल्पना करना कठिन है। जब से बैटरी रिक्शा चला है, हमारी कमाई आधी हो गई। हर जगह से हम भगाए जाते हैं। बैटरी रिक्शा वाले पुलिस को सुविधा शुल्क दे देते हैं, हम लोग दे नहीं पाते हैं। पहले चार-पांच सौ का धंधा हो जाता था। हाल के दिनों में सौ-दो सौ कमाना मुश्किल हो गया था। हमें आटो और टोटो वालों से कोई गिला-शिकवा नहीं है। लेकिन पुलिस वालों के लिए सुविधा शुल्क कहां से लाएं? कोरोना आया तो कमर ही तोड़ दिया। पेट में अन्न नहीं जा रहा है। अब तो रिक्शा चलाने लायक शायद ही रह पाएंगे। हमारी दो लड़किया हैं। बड़ी लड़की विश्वनाथ मंदिर परिसर में झाडू-पोंछा करती थी। तब घर का खर्च चल पाता था। बेटी का काम भी बंद है। छोटी बेटी महज चौदह बरस की है। वो काम करती नहीं। पत्नी झाड़ू-बर्तन करती थी, कोरोना के चलते वो काम भी छूट गया। हमें उस विकास से कोई मतलब नहीं है जो मुश्किल के दिनों में हमारा पेट न भर सके। पत्नी मंगरा देवी पहले सब्जियों का ठेला लगाती थीं। लाक डाउन में ठेले भी बंद हैं। भदऊ चुंगी पर पहले खाना मिल जाता था और अब वो भी बंद है। लाक डाउन में एक रोज रिक्शा लेकर निकले तो पुलिस की लाठियां खानी पड़ीं। भदऊ पर सालों से झोपड़ी में रहते हैं। दो रोज से भूखे हैं। सोमवार को तीन पाव आटा उधार लिया। कोशिश है कि एक टाइम का जुगाड़ हो जाए। लेकिन यह जुगाड़ कहां से होगा? इसका मेरे पास कोई सार्थक हल नहीं है। डोम राजा: शालू चौधरी, 30 साल (काशी का मणिकर्णिका घाट अंतिम संस्कारों के लिए जाना जाता है। यहां शव जलाने वालों को मिला है डोम राजा का दर्जा। इन्हें श्मशान का चौकीदार भी कहा जाता है।) मैं बीते सात-आठ साल से मणिकर्णिका घाट पर शव जलाने का काम कर रहा हूं। ये हमारा पुश्तैनी काम है और हमारे बाप-दादा-रिश्तेदार भी यही काम करते हैं। हाल के कुछ सालों में नि:शुल्क शव वाहिनी से मुर्दा वालों को सुविधा मिली। घाट के ऊपर की तरफ जो लाशें जलती थीं, उससे राहत मिल गई। टिन शेड और चिमनी वगैरह लग गईं। घर-परिवार जैसा था, वैसा आज भी है। लाक डाउन में सबका काम ठप सा हो गया है। लाशें जल रही हैं और उम्मीदें बनी हुई हैं। हमें आमदनी से खास मतलब नहीं है, क्योंकि बाबा मसाननाथ की कृपा से हमें पेट भरने के लिए मिल जाता है। पहले एक आदमी काम करके परिवार के दस-बारह लोगों का पेट भर लेता था और अब थोड़ी दिक्कत है। मैंने बारहवीं तक पढ़ाई की है। शव जलाने का पेशा छोड़ना चाहा, पर चाहने से क्या होता है? पुश्तैनी धंधा जो है। आखिर इसे चलाने की जिम्मेदारी भी तो हमारी ही है। महंगाई बढ़ने से उतनी दिक्कत नहीं हुई, जितनी कोरोना से हुई है। अब हमें ठिठकना पड़ता है कि जिसे जलाने जा रहे हैं वो कोई कोरोना का मरीज तो नहीं है। |
काशी के पांच अहम किरदार, सब पर कोरोना का वार