कोरोना से मुरझाई फूलों की मुस्कान, तबाह हो गई फूलों की खेती
जमीन पर गिर बर्बाद हो रहे फूल,खरीदार न मिलने से हर दिन लाखों का नुकसान
खेतों में लाल गुलाब का रंग कुछ फीका सा है, गेंदे के फूल ने जैसे खुद को मुरझाया सा मान लिया
विजय विनीत
वाराणसी। लाल गुलाब का रंग कुछ फीका सा है। गेंदे और चमेली ने भी खुद को मुरझाया सा मान लिया है। ठीक वैसी ही, जैसे विधवा की सूनी मांग हो। टेंगरी, बेला और कुंद की बगिया वीरान हो गई है। ये फूल अब अंगारे सरीखे बन गए हैं। लाक डाउन जो है। गुलाब के फूलों के कांटे किसानों के
दिलों में चुभ रहे हैं। इन किसानों की मुस्कान गायब है। अगर कुछ है तो इनकी आंखों में आंसुओं की धुंध। कोरोना की वजह से मुरझाए फूलों की खेती और कारोबार चौपट हो गया है। पुनर्जीवन के लिए किसानों को योगी सरकार से संजीवनी की दरकार है। 
बनारस के सैकड़ों गांवों में होती है फूलों की खेती। कहीं गुलाब, बेला, चमेली तो कहीं ग्लेडुलस, रजनीगंधा और जरबेरा। कोरोना के चलते काशी के मंदिरों के कपाट इन दिनों बंद हैं। इस वजह से फूल उत्पादकों की किस्मत लॉक डाउन में लाक सी हो गई है। खेतों में रंग-बिरंगे फूल तो हैं, लेकिन न कद्रदां हैं, न बागवां। आपको हम ले चलते हैं उन गांवों में जहां सैकड़ों लोगों की आजीविका फूलों पर टिकी है। चाहे चिरईगांव जाएं, या फिर दीनापुर। इन गांवों की पगडंडियां शुरू होने से पहले ही फूलों की खुशबू आपका इस्तकबाल करेगी। दूर-दूर तक फूल ही फूल। आब-ओ-हवा में बिखरती इनकी खुशबू, मादकता से भर देती है। कहीं गुड़हल, कुंद, बेला के फूल तो कहीं गुलाब, गेंदा की क्यारियां।
दीनापुर बनारस का ऐसा अनूठा गांव है जहां धान-गेहूं नहीं, सिर्फ फूलों की खेती होती है। वही फूल जो बाबा विश्वनाथ और काशी के कोतवाल काल भैरव के माथे की शोभा बनते रहे हैं। सिर्फ पूर्वांचल ही नहीं, बिहार से लगायत कोलकाता तक यहां से जाते रहे हैं रंग-बिरंगे फूल। दीनापुर के बागवानों के लिए ये फूल सोने से कम नहीं थे, लेकिन कोरोना के चलते अब माटी हो गए हैं। ऐसी माटी जिसे कोई पूछने वाला ही नहीं है। फूलों की खेती से समृद्ध और खुशहाल दीनापुर के पुष्प उत्पादक अब खून के आंसू रो रहे हैं।
बनारस शहर से करीब छह किमी दूर है दीनापुर। आबादी है करीब सात हजार। नौकरशाही की उपेक्षा के चलते इस गांव में सुविधाएं नदारद हैं। चलने के लिए ढंग की सड़कें नहीं हैं। इसके बावजूद दीनापुर वालों ने अपनी हाड़तोड़ मेहनत और जज्बे के दम पर अपने गांव को अनूठा बना दिया है। यहां रहने वाले करीब तीन सौ परिवार सिर्फ फूलों की खेती करते हैं। इस गांव में करीब तीन सौ एकड़ में फैली फूलों की घाटी किसी को भी बरबस अपनी ओर खींच लेती है। समूचा दीनापुर फूलों का विशाल बाग सरीखा दिखता है। यह गांव कभी पीले नारंगी गेंदे से पटा रहता है तो कभी सफेद बेले, कुंद व टेंगरी से। देसी गुलाब की खुशबू की तो बात ही अलग है। खेत के किनारे बड़ी-बड़ी झाड़ियों में सुर्ख लाल गुड़हल का फूल हर किसी को दीवाना बना देता है।
सुनीता देवी कहती हैं, 'हाड़तोड़ मेहनत का दूसरा नाम है पुष्प उत्पादन। पौधे लगाना, पानी देना और ताजीवन उनकी देखभाल करना आसान काम नहीं है। फूल आने पर उन्हें तोड़ना। उनकी माला बनाना और फिर उसे मंडी में ले जाकर बेचना हर किसी के बूते में नहीं है।'
दीनापुर में करीब तीन दशक से फूलों की खेती कर रहे अनिल बताते हैं कि उनकी देखा-देखी धन्नीपुर समेत आस-पास कई गांवों के लोग फूल की खेती करने लग गए। त्रिलोकी नाथ कहते हैं, 'जितना धान से मुनाफा होता था, उससे तीन गुना फूलों से हो जाता था। एसटीपी बनने के बाद इस गांव के ज्यादातर किसानों की जमीनें चलीं गईं। रकबा कम होने की वजह से लोगों को फूलों की खेती शुरू करनी पड़ी। लाक डाउन के चलते अब उनकी खेती ही नहीं, समूचा कारोबार बैठ गया है।'
दीनापुर से पहले है चिरईगांव। यूं तो ये बगीचों का गांव है, लेकिन यहां फूलों की खेती करने वाले भी कम नहीं हैं। करीब दस हजार की आबादी वाले इस गांव में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनकी आजीविका फूलों पर टिकी है। कोरोना ने अब इन्हें तबाह कर दिया। गुलाब की खेती करने वाले विनोद कुमार को अब इनके फूल चुभ रहे हैं। कहते हैं, 'लाक डाउन में मंदिर बंद, मंडी बंद-आखिर कहां लेकर जाएं अपने फूलों को। इन्होंने करीब दस बिस्वा में देसी गुलाब की खेती कर रखी है।' इसी तरह परमात्मा मौर्य, अजय मौर्य, अनिल मौर्य, नंदू मौर्य, पंकज मौर्य, प्रीतम मौर्य की आंखों में आंसुओं की धुंध कम होने का नाम नहीं ले रही है। विनोद मौर्य कहते हैं, 'गुलाब को तोड़कर उसकी पंखुड़ियों को सुखा रहे हैं। बस उम्मीद भर है कि शायद वो औने-पौने दाम में बिक जाएं। इन पंखुड़ियों का प्रयोग ठंडई में किया जाता है। पहले गुलाब की ये पंखुड़ियां 50-60 रुपये प्रति किग्रा की दर से बिक जाती थीं, अब बीस के भाव बिक जाएं तो बड़ी बात होगी।'
अनिल कुमार कहते हैं, 'कच्चा रोजगार है। लाक डाउन में सब बेकार हो रहा है। गुलाब तो तोड़ भी रहे हैं, बाकी फूलों को यूं ही छोड़ दिया है। शायद उन फूलों की किस्मत मंदिरों के लिए नहीं है। कोरोना की वजह से लाक डाउन जो है। प्रीतम का दर्द यह है कि वो खुद मर जाएंगे, मगर फूलों के पेड़ों को मरने के लिए नहीं छोड़ सकते। हर दो-चार दिन पर फूलों को पानी तो चाहिए ही। एक बीघा पर करीब छह सौ रुपये सिंचाई खर्च तो देना ही पड़ेगा। जीना है तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा।'
बनारस के शिवपुर से सटे इंद्रपुर की कहानी कुछ दीनापुर और चिरईगांव के किसानों जैसी ही है। इस गांव के बागवान मदन मौर्य, रामधनी मौर्य, हरिशंकर मौर्य, किशन मौर्य, फूलचंद सोनकर, राजाराम मौर्य, संग्राम मौर्य, अमरनाथ गौड़, रामकरन यादव, प्रेमचंद यादव, राम किशुन मौर्य सहित दर्जनों लोग देसी गुलाब की खेती करते हैं। शोभनाथ मौर्य तो इंद्रपुर में पैदा होने वाला गुलाब सोनभद्र, रेनूकोट, शक्तिनगर से लेकर भदोही तक भेजते रहे हैं। इस गांव में घर-घर में फूलों की माला बनती है। घर की महिलाएं माला बनाती हैं और पुरुष उसे बांसफाटक व मलदहिया की फूल मंडी में बेचते हैं। रामधनी बताते हैं, 'फूलों की खेती की वजह से उनकी जमीनें बचीं हैं। फूल अगर आजीविका के साधन न होते तो वहां भूमाफिया की हवेलियां बन गई होतीं। कोरोना की वजह से फूलों का कारोबार चौपट हो गया है। बागवान कर्जदार बनते जा रहे हैं। कोई उपाय नहीं बचेगा तो ये फूलों की खेती वाली जमीनें जरूर बिक जाएंगी। तब वो जमीनें भी उन भूमाफिया के कब्जे में चली जाएंगी, जो उन पर सालों से गिद्ध नजर जमाए हुए हैं।'
इंद्रपुर के राजेंद्र कुमार मौर्य कहते हैं, 'लॉक डाउन और आगे बढ़ा तो हमारी मुश्किलें इतनी बढ़ जाएंगी, जिसका कोई ओर-छोर नहीं होगा। आखिर कोरोना का दंश सिर्फ किसान ही क्यों झेलें? योगी सरकार किसानों के नुकसान की भरपाई करे। पूरा न सही, थोड़ी सी राहत उनके लिए संजीवनी बन सकती है।'
यहां बिकते हैं फूल और मालाएं
बनारस जिले के उत्पादकों के फूल मलदहिया और बांसफाटक फूल मंडी में जाते हैं। इन दोनों फूल मंडियों से पूरे पूर्वांचल और बिहार में फूल और माला की सप्लाई होती है। जिले में आमतौर पर गुलाब, गेंदे, गुड़हल, गुलदावदी, कुंद, जूही, बेला जैसे फूलों की खेती होती है। इन फूलों से खास तौर पर मंदिरों में चढ़ाने के लिए मालाएं बनाई जाती हैं। शादी-विवाह और त्योहारों पर फूलों की मांग काफी बढ़ जाती है। कुंद के फूल खास तौर पर गजरे और जयमाल बनाने के लिए उगाए जाते हैं।
फूल की खेती का रकबा
गेंदा 500 हेक्टेयर, गुलाब 150 हेक्टेयर, ग्लेडुलस-50 हेक्टेयर, मदार -5 हेक्टेयर, बेला, 10 हेक्टेयर, कुंद 5 हेक्टेयर और गुलदावदी 5 हेक्टेयर।