काशी में रोटी और रोजगार तलाशते बंजारे मूर्तिकारों की जिंदगी बदरंग
अराधना पांडेय
काशी में रोटी और रोजगार तलाशते बंजारे मूर्तिकारों की जिंदगी बदरंग हो गई है। ये शिल्पकार यहां मुफलिसी की पीड़ा झेल रहे हैं। प्लास्टर आफ पेरिस से मूर्तियों के नमूने तराशने वाले अपनी तकदीर के लिए रंग के एक छींटे भी नहीं बचा सके हैं। कद्रदानों की कमी और सरकारी नुमाइंदों की बेरुखी ने इनका हौसला तोड़ दिया है। इसके चलते ये अपनी जिंदगी की निश्चित शक्ल नहीं गढ़ पा रहे हैं।
लोक संस्कृति और कला को समृद्धशाली बनाने वाले शिल्पी भले ही मुफलिस हो, मगर इनकी उंगलियों में गजब का हुनर रचा-बसा है। मगर ऐसे हुनर का क्या फायदा जो रहने को छत, दो वक्त की रोटी और तन ढंकने के लिए कायदे का कपड़ा भी मयस्सर न करा सके। मायूसी से यह सवाल करते हैं 47 वर्षीया उदयराम। ये एक बंजारे मूर्तिकार के मुखिया हैं। ये और इनका परिवार शिवपुर बाइपास पर सड़क के किनारे प्लास्टर आफ पेरिस की मनमोहक मूर्तियां गढ़ने में लगे हैं।
कुछ बरस पहले राजस्थान और गुजरात से कुछ कंगाल बंजारे यहां आए थे। दोनों राज्यों के मूर्तिकार सड़कों के किनारे झुग्गी-झोपड़ियों में प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां गढ़ते थे। गुजराती शिल्पकारों को मूर्तियां गढ़ने में महारत हासिल था तो राजस्थानी बेहतर रंगसाज थे। जरूरत ने दोनों को करीब लाया। उनमें आपसी रिश्ते भी बने। दो राज्यों की कल और संस्कृति का जीवन में अनूठा सामंजस्य हुआ। इन्होंने हर धर्म और संप्रदाय से जुड़े देवी-देवताओं की मूर्तियां बिना भेदभाव के गढ़ा। साथ ही गली-कूचों में घूमकर लोगों तक पहुंचाया भी।
छल-कपट से कोसों दूर बंजारे शिल्पकारों ने अपनी कला को न कद्रदानों तक पहुंचाया, बल्कि अपने हुनर को दिल खोलकर बांटा। अपने जैसे फटेहाल लोगों की मदद की। वह भी बिना किसी लिंग भेद और वर्ग के आधर पर। फिर भी समाज ने इन्हें तनिक भी अहमियत नहीं दी। इनकी जिंदगी किसी अफसाने से कम नहीं। बनारस आकर इनकी कला तो जरूर निखरी है, लेकिन कद्रदानों से इन्हें मायूसी ही मिली है। दीगर बात है कि दिवाली-दशहरे में इनकी कलाकृतियों की बिक्री ठीक-ठाक हो जाती है।
26 वर्षीय कालूराम बताते हैं कि प्लास्टर आफ पेरिस का एक कट्टा 200 रुपये में आता है, जिससे चार-पांच मूर्तियां ही बना पाती हैं। बनाते समय अक्सर कई मूर्तियां टूट जाती हैं। वो बताते हैं कि जब से लोग आर्ट गैलरियों से मूर्तियां खरीदने लगे हैं तब से उनका धंधा मंदा हो गया है। यदि वे गली-गली घूमकर मूर्तियां बेचना बंद कर दें तो दो वक्त की रोटी जुटा पाना भारी पड़ेगा।
बारिश और गर्मी का कहर भी इनके सिर पर कम नहीं है। आंधी-पानी तो इनकी बर्बादी की सौगात लेकर आती है। अक्सर इनके घरौंदे उजड़ जाते हैं। महीनों कठिन परिश्रम और निष्ठा से गढ़ी हुई मूर्तियों को बचाने के लिए ये अपने बच्चों के साथ भीगते हैं। मूसलधार बारिश अक्सर इनकी मेहनत पर पानी फेर दिया करती है।
कला-संस्कृति के इन पुजारियों को पुलिस और छात्र दोनों ही परेशान करते हैं। पुलिस सुविधा शुल्क वसूलती है तो छात्र फोकट में मूर्तियां चाहते हैं। गाहे-बगाहे सिरफिरे भी इन्हें तंग करते हैं। परिवार और इज्जत का सवाल जुड़े होने के कारण ये मूर्तिकार उफ तक नहीं करते। राजस्थान और गुजरात के बंजारे शिल्पिकारों ने बनारस शहर में जिन लोगों को अपना हुनर सिखाया है, उनकी हालत भी जर्जर है।
25 साल की गिट्टा सालों से शिवपुर बाइपास पर मूर्तियां गढ़ रही हैं। शिव, लक्ष्मी, गणेश हो या महारानी विक्टोरिया या फिर प्रभु ईशु। बिना किसी भेदभाव के अपनी कला को निखार रही हैं। यही इनकी आजीविका का साधन भी है। कहती हैं, यह क्या कम है कि हमें दूसरों की गुलामी नहीं करनी पड़ रही है। यही वजह है कि यह धंधा नहीं छोड़ पा रही हैं। कर्ज और सरकार का नाम लेते ही इनके चेहरे की लकीरें तन जाती हैं। दरअसल इन्हें भी सरकारी तंत्र के रवैये से नफरत है। कारण, इनके पास न ठौर-ठिकाना है, न सस्ते अनाज के लिए राशन कार्ड। प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों को बिजने से इतनी कमाई नहीं होती कि वो अपने बच्चों को किसी स्कूल भेज सकें। यह त्रासदी केवल कालूराम के परिवार की नहीं, बल्कि मूर्तियां गढ़ने वाले सभी शिल्पकारों की जिंदगी की दस्तावेज हैं।