चिरईगांवः इंडिया में ऐसा गांव कोई नहीं

जानिए उत्तर भारत के पहले आदर्श गांव की कहानी



विजय विनीत


चिरईगांव...। मतलब चिड़ियों की चहचहाहट। हर तरफ हरियाली। जी हां...। हम बात कर रहे हैं बनारस के चिरईगांव की। ऐसा गांव जहां हर तरफ हरियाली है। बाग हैं...खेत हैं... और उसमें लहलहाती सब्जियां और रंग-बिरंगे फूल हैं। मौसम चाहे जो भी हो, चहुओर देखने को मिलेगी हरियाली। गांव में पहुंचते ही बड़े-बड़े बाग आपका इस्तकबाल करेंगे। कहीं फालसा के बाग, तो कहीं नीबू और करौदा के। आम, अमरूद के बागों की तो लंबी श्रृंखला है।


अचरज की बात यह है कि चिरईगांव बनारस का इकलौता ऐसा गांव है जहां आजादी के पहले से ही अपनी सड़कें थीं, खड़ंजे थे और सड़कों के किनारे नालियां थीं। ग्रामीणों के अंदर गजब का भाईचारा था। भाईचारे के अलावा इस गांव  के लोगों ने पेशा चुना तो सिर्फ बागवानी का। आजादी के तत्काल बाद स्कूल व पंचायत भवन बना और चिरईगांव ने अपने गांव का नाम आदर्श कटेगरी में शामिल करा लिया। बनारस जिले के किसी गांव के लोगों ने शिक्षा के महत्व को समझा तो वो चिरईगांव ही था। करीब दस हजार की आबादी वाले इस गांव में इस समय करीब पांच हजार से ज्यादा वोटर हैं।


साल 1962 में इस गांव की कुल आबादी सिर्फ 1523 थी। 90 फीसदी पुरुष और 20 फीसदी महिलाएं मिडिल पास थीं। उन दिनों यहां एक व्यक्ति पीएचडी, पांच परास्नातक, सात स्नातक, आठ इंटरमीडिएट और सौ से अधिक लोग हाईस्कूल व मिडिल पास थे। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो साक्षर न रहा हो। पंचायतघर, प्राइमरी स्कूल, पक्की सड़कें, नेहरू बाल क्रीड़ा केंद्र, बड़े-बड़े तालाब, सूचना केंद्र, पुस्तकालय, डाकघर, नलकूप, नारी शिक्षा केंद्र, शिल्प कला केंद्र, अखाड़े, युवक मंगल दल, नाटक व भजन मंडलियां चिरईगांव की पहचान थीं।


देश के जाने-माने उद्यानविद मंशाराम ने साल 1962 में चिरईगांव पर गंभीर शोध किया था। शोध रिपोर्ट के मुताबिक यूपी में बनारस जिले का यह ऐसा आदर्श गांव है जो साल 1928 से लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। साल 1936 में भारत के वाइसराय लार्ड लिनलिथगो इस गांव में आए थे और यहां बागवानों से मिलकर खासे प्रभावित हुए थे।



चिरईगांव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि समूचे गांव में फलों के बाग सुंदर ढंग से लगाए गए हैं। इस गांव में चहुओर हरियाली देखते बनती है। पहली पंचवर्षीय योजना के बाद सरकार ने इस गांव से प्रभावित होकर आसपास के इलाकों में बागवानी पर जोर दिया। पहले चिरईगांव के बागवान अपने फलों को दिल्ली, कोलकाता, पटना, छपना से लेकर गोरखपुर से लगायत पेशवार तक भेजते थे। चिरईगांव में लंगड़ा आम, बनारसी नीबू, बनारसी अमरूद,  बनारसी सीताफल,  बनारसी करौदा, फालसा, गुलाब, पपीता, केला, कटहल, आंवला, बेल, शरीफा, करौदा, कागजी बेल के अलावा अनन्नास तक का उत्पादन होता था। चिरईगांव में बेर, शहतूत, इमली, आमरा, जामुन, नाशपाती, तिपारी, खिरनी, अनार, अंजीर, लीची, सपोटा, ग्रेप फ्रूट, महुआ, मीठा नीबू, कदंब, बड़हर और अंगूर उगाया जाता है। इस गांव में 95 फीसदी लोग उस जाति के हैं जो फल-बागवानी और सब्जियों की खेती में निपुण माने जाते हैं। मौर्य, कुशवाहा, कोईरी, काछी के नाम से प्रचलित यह जाति अपने हाथ से काफी परिश्रम करती है। इन्हें बागवानी का खासा व्यावहारिक ज्ञान है।


साल 1962 में इस गांव में 709 एकड़ में बाग थे। शहरीकरण के चलते इनका रकबा घटकर आधे से भी कम रह गया है। चिरईगांव के लोग अपने बागों को बेचकर खाली हो जाते हैं तो बाकी समय में शुरु कर देते हैं बनारसी साड़ियों की बुनाई। वही बनारसी साड़ियां देश-विदेश में विख्यात है। चिरईगांव में फलों बिक्री खटिक जाते के लोग करते रहे हैं, जो गांव के एक किनारे बसे हुए हैं। जब बागों में फल लग जाते हैं तो वो एक सीजन के लिए बगीचे खरीद लेते हैं। ये आज भी फलों को टोकरी में भरकर शहरों में भेजते और बेचते हैं।



उद्यानविद मंशाराम बताते हैं कि चिरईगांव में बागवानी ऐसी अनूठी परंपरा रही है जो दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलती। यहां बागों के बीच मौसमी गुलाब और गर्मियों में सब्जी उगाई जाती है। गुलाब के बागों में बाद में बनारसी नीबू का बाग लगाने की परंपरा रही है। जब नीबू फलने लगता है तो गुलाब उखाड़ दिया जाता है। मतलब बागों के बीच सब्जी और फूलों की खेती का हुनर सिर्फ चिरईगांव के बागवानों को ही आता है। नीबू और आम के बाग में पपीता, आम के बाग में नीबू और अमरूद, अमरूद के बाग में नीबू, आम के बाग में अनन्नास और पपीते की खेती यहां खासी प्रचलित रही है। चिरईगांव का फालसे की बात ही मत पूछिए। न इसे पानी देने की जरूरत पड़ती है और न ही उर्वरक। मतलब न हींग लगे, न फिटकरी, रंग चोखा। इसकी लग्गी भी बिकती है जो टोकरी बनाने के काम आती है।


आप जब चिरईगांव जाएंगे तो बागों की श्रृंखला देख मुग्ध हो जाएंगे। मनोहारी बाग-बगीचे नेताओं को भले ही न सुहाते हों, लेकिन फलों से लगदक बगीचे और फूलों से लदे खेत चिरईगांव की सुंदरता में चार-चांद लगाते हैं। एक जमाने में जगन्नाथ कुशवाहा, अदित्य नारायण, देवराज मौर्य, सुवच्चन और विश्वनाथ प्रसाद मौर्य की बागवानी के बड़े-बड़े लोग कायल थे। देश भर के नेता इनके बगीचे को देखने और फल खाने आते थे। पहले बनारस के मंदिरों के लिए गुलाब और गेंदे के फूल इसी गांव से भेजे जाते थे। बनारसी पान में इस्तेमाल किया जाने वाला गुलकंद चिरईगांव के बागवानों की खोज है। चिरईगांव में अचार, चटनी, मुरब्बा, जेली आदि की फैक्ट्रियों में आज भी बड़े पैमाने पर गुलकंद बनाया जाता है। साल 1960 में दिल्ली में विश्व कृषि प्रदर्शनी आयोजित की गई तो बनारसी आम, बनारसी आंवला, बनारसी अमरूद, बनारसी नीबू और कागजी बेल, बनारसी कटहल को अव्वल आए। चिरईगांव के गुलाब के फूल, गार्डेन मटर, बैगन, आलू, पपीता ने भी इस विश्व प्रसिद्ध प्रदर्शनी में अपना जलवा बिखेरा था।


चिरईगांव बनारस का ऐसा इकलौता गांव है जहां भाईचारे की अटूट मिसाल देखने को मिलती है। साफ-सफाई के लिए इस गांव के लोग सरकार का मुंह नहीं देखते। अपने घर को, अपनी गलियों को खुद साफ-सुथरा रखते हैं। जानते हैं क्यों? खुद के जरिये साफ-सफाई करने की इस गांव में सालों पुरानी परंपरा है। ऐसी परंपरा जो आज तक नहीं टूटी। चिरईगांव के लोग इस बात से रंज है कि बाहरी लोग यहां आकर इस गांव की परंपरा को, भाईचारे को ठोकर मारने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन भाईचारे की गांठ कितनी मजबूत है जिसे तोड़ पाना किसी के बूते की बात नहीं।