सियासत में उलझी बनारस के बुनकरों की जिंदगी

बनारस में हुनरमंदों को रुला रहा ये ताने-बाने का दर्द



विजय विनीत


बनारस की साड़ियां फैशन नहीं, परंपरा हैं। ऐसी परंपरा, जिसकी रस्म दुनिया  भर में निभाई जाती है। इंडिया में शादी कहीं भी हो, रुतबा तो बनारसी साड़ियों का ही रहा है। रेशमी रिश्ते से दापत्य का रिश्ता स्थायित्व पाता है। बनारस के कई इलाकों में हर घर में बुना जाता है यह रिश्ता। इन रिश्तों को बुनने वाले अब सियासत के ताने-बाने में उलझकर रह गए हैं। इन्हें बिजली मिल रही है, पर बाजार नहीं है। किसके लिए बुनें रेशमी रिश्ते। कहां और किसे बेचें अपनी नायाब साड़ियां? 


एक वह भी जमाना था जब बनारस की हर गली से खटर-पटर की आवाज आती थी। बुनकरों के साथ मालामाल और खुशहाल थे साड़ी के कारोबारी। अब तस्वीर उल्टी है। बनारस के बुनकर बदहाल हैं। उन्हें दो वक्त की रोटी जुटा पाना कठिन हो गया है। कपड़ा मंत्रालय भी ताकीद कर चुका है कि बनारस के बुनकरों की स्थिति ठीक नहीं है। उन्हें बुनकर क्रेडिट कार्ड और बीमा योजना का लाभ ठीक से नहीं मिल पा रहा है।


इनके नसीब में हैं सिर्फ बजबजाती नालियां और सड़कों पर बहता सीवर का पानी। साथ ही ठोकर मरती सड़कें। चाहे बजरडीहा हो या फिर, सरैयां, कोनिया, अश्फाक नगर और लोहता। बुनकरों की ये बस्तियां बदहाली की मिसाल हैं।  


पावरलूम तो बिजली के र्स्माट मीटर के बीच फंसकर रह गया है। लालपुर में मोदी का टीएफसी इनके लिए बेमतलब साबित हो रहा है। साड़ियां बनती हैं बिचौलिए झपट लेते हैं। बेबसी में बुनकर अब दूसरे धंधे करने लगे हैं। नाटी इमली के बुनकर नजीर अहमद अब ई-रिक्शा चलाते हैं। कहते हैं, नेताओं ने योजनाएं तो बहुत बनाईं। सुनहरे ख्वाब भी दिखाए, मगर मिला क्या?


नजीर की तरह अंसार अहमद, गुलजार अहमद, अब्दुल कलाम, वाजिद सहित तमाम बुनकर अपने पुश्तैनी धंधे को छोड़ चुके हैं। पीलीकोठी के हफीजुर्रहमान कहते हैं कि उनके पास पावरलूम नहीं है। साड़ी घर में बनती है। साड़ियां लालपुर टीएफसी लेकर जाते हैं तो कोई पूछता ही नहीं। टीएफसी के बाहर दलालों और बिचौलियों के जमावड़ा लगता है जो औने-पौने दाम पर साड़ियां खरीदते हैं। चौक, भैरव गली, मदनपुरा में  साड़ी के गद्दीदार रेयाज, अनीसुर्रहमान, इदरीश, रोहित और अरविन्द बताते हैं कि बनारसी साड़ी से सस्ती बंग्लौरी, चंदेरी सहित दूसरे राज्यों में बनी साड़ियां मिल जाती हैं। बनारसी साड़ी बनाने से लेकर बेचने तक महंगी पड़ती है। ऐसे में बनारसी साड़ी का कारोबार ज्यादा दिन टिक पाएगा, यह कह पाना बेहद कठिन है।  


बनारस में एक लाख बुनकर


बनारस में बुनकरों की तादाद करीब एक लाख है। इनके परिजनों को जोड़ दिया जाए तो इस धंधे से करीब चार लाख लोग जुड़े हैं। बनारसी साड़ी उद्योग करीब एक हजार करोड़ से अधिक का है। इसमें बुनकरों का हिस्सा बीस फीसदी भी नहीं है। इसीलिए उन्हें घर चलाना मुश्किल होता है। बनारसी साड़ी के कारोबारी हाजी जुबैर कहते हैं कि सरकारें बुनकरों की भलाई के लिए योजनाएं तो बहुत बनाती हैं, लेकिन उनपर अमल नहीं हो पाता। पैसे आते हैं, मगर बुनकरों तक नहीं पहुंच पाता। सिसायतदां भी नहीं बता पाते कि आखिर कहां चला जाता है उनकी जिंदगी को खुशनसीब बनाने के लिए आने वाला सरकारी धन? 


इसलिए बदहाल हो गए बुनकर


लल्लापुरा के बुनकर इदरीस अंसारी कहते हैं कि साल 1989 के दो फैसलों ने बुनकरों को बदहाली के कगार पर पहुंचा दिया। पहला था, पावरलूम के इस्तेमाल की इजाजत और दूसरी थी यूपी हैंडलूम और यूपिका के जरिए बुनकरों का तैयार माल लेना बंद करना। इसके पक्ष में दलील दी गई कि सरकार को रद्दी माल बेचा जा रहा है। बुनकर वजाउद्दी अंसारी कहते हैं कि कुछ लोग गलत हो सकते हैं, पर हर कोई नहीं। सरकार ने निगरानी के बजाय सीधे बुनकरों के लिए संजीवनी बने यूपी हैंडलूम और यूपिका को माल बेचने की सुविधा ही खत्म कर दी। जकार्ट के इस्तेमाल से पावरलूम पर भी वह डिजाइन्स बनने लगीं जो केवल करघे पर ही बनती थीं। इससे करघे खामोश होते गए।


टीएफसी बुनकरों के लिए ही बनाया गया है जहां वो अपना माल बिचौलिये के बिना बेच सकते है अगर ऐसी कोई बात है तो जांच कराया जायेगा।


० नितेश धवन,    


सहायक निदेशक हथकरघा, वाराणसी क्षेत्र।