पूर्वांचल के दस्तावेजों में दर्ज 'मुसहर' आज भी खा रहे चूहे!

उत्तर भारत में हाशिए पर खड़ी एक बड़ी आबादी



विजय विनीत की पड़ताल


लालचंद वनवासी अपनी बांह पर रेंगते चूहे को जमीन पर पटककर मारने की कोशिश में हैं। उनके चारों ओर खड़े मुहल्ले के बच्चे इनकी हरकत देखकर खुशी से ताली बजाने लगते हैं। मुसहर (musahar) समुदाय के इन लोगों के लिए एक वक्त का भोजन तैयार है। उंगलियों के नाखून से चूहे की चमड़ी उधेड़ते लालचंद बताते हैं कि इस चूहे को पकाने में उन्हें 15 मिनट लगेंगे। मुसहर बस्ती में इसे हर कोई पसंद करता है। सभी इसे पकाना जानते हैं। यह नए भारत की तस्वीर नहीं है। या फिर यह कह सकते हैं कि यह दशकों से व्यवस्था का दंश झेलते समुदाय की मजबूरी है।


हम बात कर रहे हैं बनारस के बरहीकला की मुसहर (musahar) बस्ती की। इस गांव में मुसहर समुदाय के मारकंडेय, राजकुमार, दरोगा, कंपनी, मती, विमला, अशोक, श्यामलाल, हरिहर, मन्नू, इसरावती, चमेल, करीमन समेत ढेर सारे लोग आज भी चूहे खाकर गुजारा कर रहे हैं। ये लोग पूर्वांचल के करीब पांच लाख मुसहर समुदाय के एक हिस्सा भर हैं। बरहीकला के लालचंद बताते हैं कि दिन भर हम बैठे रहते हैं हमारे पास कुछ करने को नहीं है। कभी-कभी हमें खेतों में काम मिल जाता है। अगले दिन फिर भूखे रहते हैं या फिर चूहे पकड़ते हैं। थोड़ा बहुत जो अनाज है उसके साथ खाते हैं।



चूहे को आग में भून कर लालचंद उसे कटोरे में रखकर उसमें नमक और सरसों का तेल मिलाते हैं...। इस दौरान वह बातचीत जारी रखते हैं। कहते हैं कि सरकारें बदलती रहती  हैं, लेकिन हमारा कुछ भी नहीं बदला। हम आज भी अपने पूर्वजों की तरह ही खाते-जीते और सोते हैं। लालचंद के इर्दगिर्द मौजूद बच्चे और दूसरे लोग चूहे खाना शुरू करते हैं और कुछ ही मिनट में भोजन खत्म हो जाता है।


यह कहानी सिर्फ बनारस के बरहीकला गांव की नहीं है। कुशीनगर, महाराजगंज, गाजीपुर, मऊ, आजमगढ़, बलिया, जौनपुर, चंदौली, प्रतापगढ़, सोनभद्र, मीरजापुर, इलाहाबाद की उन सभी मुसहर बस्तियों की है जहां हर आदमी जिंदा रहने के लिए जंग करता नजर आता है। बनारस के बरहीकला, अनेई, खरावन, बेलवां, आयर, लच्क्षापुर, सराय, ओरांव, रायतारा, पिंडरा में मुसहर समाज की खासी संख्या है। इन बस्तियों में गरीबी है...भुखमरी है...और जीने की छटपटाहट भी है...।


मानवाधिकार जननिगरानी समिति की शिकायत पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हाल में यूपी सरकार को नोटिस जारी किया था। आयोग ने पूछा था कि पूर्वांचल में मुसहरों की दशा क्यों नहीं बदली? तब सरकार ने झूठी सफाई पेश की। दावा किया कि मुसहर समुदाय को हर सरकारी योजना में शामिल कर लिया गया है। सच यह है कि किसी भी सियासी दल ने मुसहरों के चूहा खाने की मजबूरी को समझने की कोशिश ही नहीं की। मुसहर समुदाय के लोग भी मानते हैं कि उन्हें गरीबी और भुखमरी से ज्यादा नेताओं ने मारा है। दशकों से वो दबंगों की तर्जनी बने रहे। कोई भी राजनीतिक दल उनकी आवाज बनने की कोशिश नहीं की। भाजपा ही नहीं, सपा-बसपा और कांग्रेसी नेता भी इनकी बस्तियों में कभी नहीं गए। साल 2014 में बिहार में जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री बने तो लगा कि बिहार के साथ-साथ यूपी के पूर्वांचल में भी मुसहर समुदाय का नसीब बदलेगा। आजादी के बाद देश को पहली बार किसी मुसहर जाति का मुख्यमंत्री मिला था। नौ महीने बाद ही वो हटा दिए गए।


मुसहर समुदाय के उत्थान के लिए काम करने वाले जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता डा.लेनिन रघुवंशी कहते हैं यह समुदाय  गरीबों में सबसे ज्यादा गरीब है। यह वह समुदाय है जो आजादी के सालों बाद भी हाशिये पर है। दलित समुदाय के लोग भी इन्हें अपने से नीचे मानते हैं। पूर्वांचल में मुसहरों की बड़ी आबादी रहती है और इनमें से ज्यादातर दिन में 50 रुपये से भी कम की आमदनी पर जिंदा हैं। डा.लेनिन यह भी कहते हैं कि किसी सरकारी योजना के इनके चौखट तक पहुंचने की कहानी दुर्लभ है। इन्हें हर दिन अगले भोजन के लिए संघर्ष करना पड़ता हैकुष्ठ रोग, टीबी जैसी बीमारियां इनके जीवन में रोजमर्रा की सच्चाई है।


सामाजिक कार्यकत्री श्रुति नागवंशी मनती हैं कि सिर्फ शिक्षा से ही मुसहर समुदाय की जिंदगी और भविष्य बदला जा सकता है। यह समुदाय इतना पिछड़ा है कि सरकारी आंकड़ों में भी यह दर्ज नहीं कि उनकी संख्या कितनी है? जबकि बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि पूरे देश में इस समुदाय के 80 लाख लोग हैं। पूर्वांचल में इनकी संख्या लाखों में है। श्रीमती नागवंशी यह भी कहती हैं कि मुसहर जाति के लोग जहां भी ज्यादा संख्या में हैं वहां भेदभाव, अलगाव और गंदगी दिखाई देती है। ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं जिन्हें फसल न होने पर खेतों से चूहे और घोंघे पकड़कर खाना पड़ता है। बनारस की लगभग सभी मुसहर बस्तियों में वह इस समुदाय के बच्चों के सेहत और शिक्षा के लिए काम कर रही हैं। इनके बच्चों को भोजन और पाठ्य पुस्तकें दी जा रही हैं।  साफ-सफाई और शौचालय का प्रयोग करने की ट्रेनिंग भी दी जाती है। बुनियादी शिक्षा बाद में शुरू होती है।



बनारस के जाने-माने पत्रकर अरविंद सिंह कहते हैं कि गांवों में उन्होंने मुसहरों की जिंदगी को काफी करीब से देखा है। पहले पूर्वांचल का समाज इनके जीवन-यापन का इंतजाम करता था। शादी-विवाह और अन्य अवसरों पर दोना-पत्तल का इंतजाम इनके जिम्मे था। बड़े-बड़े कैटरर्स ने उनकी जिंदगी को बदरंग कर दिया। बची-खुची कसर  कागज-प्लास्टिक का बर्तन बनाने वालों ने पूरी कर दी। जंगली पेड़ों की पत्तियों से बना दोना-पत्तल लेकर ये जाएं तो किसके पास जाएं। हर चुनाव में मुसहरों के वोटों की कीमत कुछ स्थानीय छुटभैये नेता वसूल लेते हैं। आजादी के बाद इनके उत्थान के लिए ठोस योजनाएं नहीं बनाई गईं। जो बनीं भी वह धरातल पर नहीं उतरीं।


सिर्फ बनारस ही नहीं, समूचे पूर्वांचल में मुसहर समाज का पुस्तैनी धंधा है दोना-पत्तल बनाना। पत्ता तोड़ना, बीनना, बांस खपच्चियों से सींक बनाना और फिर घंटों मेहनत के बाद बन पाता है दोना-पत्तल। एक व्यक्ति दिन भर में पांच-छह गड्डी दोना ही तैयार हो पाता है। इससे सिर्फ 25- 30 रुपये ही मिल पाते हैं। इस धंधे से अब इनके पेट की आग नही बुझ पाती। कागज और प्लासिटक के बर्तनों ने इनका रोजगार छीन लिया है। अब तो पेट भर पाना मुश्किल हो गया है। इसके चलते हर साल पलायन करना इनकी मजबूरी है। आयर की तरह सभी मुसहर बस्तियों के लोग करीब आठ महीने तक पंजाबहरियाणा और मध्य प्रदेश की जंगलों में खाक छानते हैं। बारिश के दिनों में घर लौटते हैं। लौटते हैं तो कुछ दिनों बाद ही फांकाकशी की नौबत आ जाती है।


मुसहर बस्तियों के विकास की बात करें तो इनकी जिंदगी किसी अफसाने से कम नहीं है। आयर बस्ती में जोखू की पत्नी दुर्गावती के नाम से प्रधानमंत्री आवास है। इसे आशियाना नहीं, मौत का घर कह सकते हैं।  इस आवास के छत की ढलाई महज दो इंच की गई है। साल 2016-17 में स्वीकृत  इस आवास का एक हिस्सा गिर चुका है। सरिया सिर्फ नाम के लिए डाली गई है। इस खंडहर को देखते ही डर लगता है। जोखू बताते हैं कि जितना धन मिला, खर्च कर दिया। पास में फूटी कौड़ी नहीं। कैसे कराएं घर की  मरम्मत।


सामाजिक कार्यकर्ता बल्लभाचार्य पांडेय कहते हैं कि सामाजिक संरचना में सबसे निचले पायदान के लोगों की स्थित बदलती नजर नहीं आ रही है। इनमेंमुसहर समाज की स्थित सबसे दयनीय हैगरीबी और मजबूरी से लेकर खान-पान में सब एक ही राह के राही हैं। इनके अंदर इस घेरे से निकलने की तड़प तो दिखती है, लेकिन उम्मीद की किरण नजर नहीं आ रही है। हर चुनाव में मुसहर बस्तियों में नेता पहुंचते हैं और आश्वासन की  पंजीरी बांटकर चले जाते हैं। इनके सामाजिक-आर्थिक व शैक्षणिक परिवेश की बेहद धीमी रफ्तार इस बात का सुबूत देती है। यह हाल-फिलहाल का नहीं, दशकों का दंश है।



जाति प्रमाण-पत्र में भी दर्ज है मुसहर


मुसहर! टाइटल जो हो, पर पहचान यही है। जहां तक चूहे खाने की बात है तो इसके पीछे गरीबी ही रही होगी। धीरे-धीरे यह कल्चर में शामिल हो गया। नई पीढ़ी इस पहचान से बाहर निकलना चाहती है, पर गरीबी आज भी वैसी ही है। थोड़ा बदलाव है, पर अभी बहुत वक्त लगेगा। भारतीय समाज में जाति ऐसी स्थिर वस्तु मानी गई है, जिसमें व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा जन्म से निश्चित होकर आजीवन अपरिवर्तनीय रहती है। हालांकि इसकी उत्पत्ति कार्य विभाजन यानी कर्म से हुई। कार्य विभाजन से उत्पन्न पेशे और पद समय के साथ वंशानुगत कर दिए गए। बावजूद इसके, खान-पान के आधार पर  जातिकरण नहीं हुआ। मुसहर अपवाद है।



नहीं आती खेती-किसानी


वाराणसी के आयर मुसहर बस्ती की सुखमनी बताती है कि नवंबर-दिसंबर में पंजाब और हरियाणा में खेतों में गिरे हुए धान को बटोर कर इकट्ठा करते हैं। उसे बेचने पर जो पैसे मिलते है उससे उनके पेट की भूख मिटती है। मार्च-अप्रैल में खेतों में गिरे गेहूं के दाने को बीनते हैं। मई-जून में मध्य प्रदेश के जंगलों से पत्ते तोड़कर बाजार में बेचते हैं। जुलाई से अक्टूबर तक बरसात में घर पर रहते हैं। ये जब दूसरे प्रदेशों से लौटते हे तो इनके पास बचत के नाम पर फूटी कौड़ी नहीं रहती। दरअसल इन्हें खेती करने आता ही नहीं। मानवाधिकार जन निगरानी समिति ने पूर्वांचल में मुसहर समुदाय को काफी संबंल दिया है। इसी का नतीजा है अनेई की मुसहर बस्ती में अब सब्जियों की खेती लहलहा रही है। इससे मुसहर समुदाय की जिंदगी में खासा बदलाव आया है। इनके बच्चे अब पढ़ने भी लगे हैं।



आयर की रेखा ने रचा इतिहास


मुसहर समाज के बच्चे पढ़ते नहीं। परिजनों के साथ पेट की आग बुझाने के लिए सिर्फ जद्दोजहद करते हैं। यकीन कीजिए। मुसहर समुदाय में शायद ही कोई लड़की होगी जो ग्रेजुएट होगी। आयर मुसहर की रेखा ने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी पास करके नया इतिहास रचा है। बस्ती में अगंनू की बेटी रेखा है। जो पूरे पूर्वांचल में मुसहर समाज की एकलौती बेटी है जिसने पहली बार हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की है। अबकी इंटर की परीक्षा दी है। रेखा अपनी मं मालती देवी और दादी शांति के साथ दोना-पत्तल बनाने में हाथ बटाती है। इन्हें ट्यूशन देने का इंतजाम नहीं। रेखा पढ़ने में तेज है, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। अनेई की संगीता ने भी इस साल इंटर की बोर्ड परीक्षा दी है। संस्था के प्रयास से सराय मुसहर बस्ती का बबलू ने  स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की है। नेपाल से लेकर नार्वे तक घूम आया है।



30 फीसदी बच्चे कुपोषित


आयर में सरकार द्वारा संचालित पोषण योजना का अता-पता नहीं।  मातृत्व शिशु सुरक्षा योजना सिर्फ कागजों पर चल रही है। यहां करीब 30 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं।  आंगनबाडी में पंजीकृत 16 बच्चों में से पांच अतिकुपोषित हैं। गर्भवती महिलाएं एनिमिया की शिकार हैं। गर्भवती सीमा को देखने से पता चल जाता है कि सरकार की मातृत्व शिशु योजना का हाल क्या है? तारा की बेटी भी कुपोषित है। आयर मुसहर बस्ती के बच्चों का बचपन खेल-खेल में बीत जाता है। वे कहीं गोली खेलते नजर आते हैं तो कहीं चभ्भा। ज्यादातर बच्चे तो सिर्फ मिड डे मील के लिए ही स्कूल में पहुंचते हैं।